Saturday, October 1, 2011

दास्ताँ ऐ ज़िन्दगी

अजीब दास्ताँ है ज़िन्दगी की, जहाँ सब कुछ अनजाना, अन्चाह्या है.
सपनो का भ्रम टुटा तो देखा , हकीकत का तो कुछ और ही फ़साना है.
क्यों किसी के सपने, किसी के उम्मीदों में अटकी है ज़िन्दगी,
क्यों चाहकर भी पूरा करने की तम्म्न्ना है अधूरी.
क्यों जिंदगी इतने दर्द देती है,
क्यों हकीकत सपनो से इतनी कडवी होती है.
चलती जा रही है ज़िन्दगी, अंतहीनता की अंधी दोद्द में ,
रात के ख्वाब टूट जाते है, सुबह के उजियारे में.
न जाने ये ज़िन्दगी क्या पल दिखाएगी,

क्या मेरे सपनो को भी कभी मंजिल मिल पायेगी?
क्या हसरतो को नये जनम मिल पायेगा,
क्या मेरी उड़ानों को भी आसमन मिल पायेगा?
क्या मेरी उड़ानों को भी आसमन मिल पायेगा?

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